मन मारी मझधार हूँ मैं
बेबस और लाचार हूँ मैं
दूर शिखर से पिघल मैं निकली
कटती बटती गिरती बहती
सात समंदर पार हूँ मैं
मन मारी मझधार हूँ मैं
काश जो होती स्रोत निकट मैं, बनती धारा उस जल की
जिसमें धूलि मात्र भूमि की, चाहे बाधा पल पल की
शायद मेरी नियती यही पर
दुविधा में हर बार हूँ मैं
मन मारी मझधार हूँ मैं
वश में नहीं है दिशा ये मेरे, दूर निकल मैं आई हूँ
मैं ही नहीं पर और हैं मेरे, संग जो अपने लाई हूँ
लहरें, झरने, खेलें, खनकें
उनका तो आधार हूँ मैं
मन मारी मझधार हूँ मैं
खड़ा किनारे तकते तकते, छन्द जो मुझ पर बोल रहा है
कथा मेरी पर भावुक हो कर, अर्थ जो अपना खोज रहा है
प्रवासी हैं कहते उसको
उस जीवन का सार हूँ मैं
मन मारी मझधार हूँ मैं
मन मारी मझधार हूँ मैं
बेबस और लाचार हूँ मैं
दूर शिखर से पिघल मैं निकली
कटती बटती गिरती बहती
सात समंदर पार हूँ मैं
मन मारी मझधार हूँ मैं
Sunday, March 21, 2010
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सुन्दर अभिव्यक्ति !!
ReplyDelete-अमरेन्द्र